ଗୁରୁବାର, ନଭେମ୍ବର 08, 2018

श्री धनवंतरि व्रत कथा

श्री धनवंतरि व्रत कथा    
Article courtesy: GURUTVA JYOTISH Monthly E-Magazine November-2018
लेख सौजन्यगुरुत्व ज्योतिष मासिक ई-पत्रिका (नवम्बर-2018) 
प्रथम अध्याय
सनकादिक मुनियों ने सूत जी से कहा-हे सूत महामुने! आपने भगवान् धनवंतरि की पूजा-विधि का विस्तार पूर्वक वर्णन किया, किन्तु इसे सुनने पर भी हमें तृप्ति नहीं हुई। अतः श्री धनवंतरि का माहात्म्य अधिक विस्तार से बताइए।
मुनिश्रेष्ठ सुत जी ने कहा-हे मुनियों! आप पापविनाशिनी कथा को सुनिए। इस कथा को सुनने से सभी रोगों का नाश होता हैं :
एक समय नारद जी सभी लोगों के कल्याण की इच्छा से समुद्र द्वीप पर्वत सहित सम्पूर्ण पृथ्वी का भ्रमण कर रहे थे। वहाँ उन्होंने सभी लोगों को विविध रोगों से दुःखी देखा। यह देखकर नारद जी चिन्तित हुए और वहाँ से स्वर्ग जा पहुँचे। स्वर्ग में इन्द्र आदि देवता भी रोगी हो रहे थे। यह देखकर नारद जी की चिन्ता और बढ़ गई। चिन्ता करते हुए वे वैकुण्ठ में पहुँचे।
वैकुण्ठ में नारद जी ने शंख चक्र अमृत कलश धारी और अभय हस्त धनवंतरि विष्णु को देखा। श्री (लक्ष्मी), भू (पृथ्वी) और नीला देवी उनकी चरण सेवा कर रही थी। ऐसे महात्मा धनवंतरि रुपी श्री विष्णु को नारद जी ने भक्ति पूर्वक प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे।
श्री नारद जी बोले-हे देवों के देव जगन्नाथ भक्तों पर दया करने वाले दीनबन्धु दयासागर जगत् की रक्षा में तत्पर आप मुझे शरणागत जानकर सन्तुष्ट कीजिए।
हे भगवन् मैंने पृथ्वी आदि सभी लोकों में पर्यटन किया और वहाँ के निवासी जनों को नाना रोगों से दुःखी पाया। किसी को ज्वर ने गिराया हैं, तो किसी को राज यक्ष्मा ने धर दबाया। कोई अतिसार, श्वास, खाँसी,संग्रहणी और पाण्डुरोगादि से पीड़ित हैं। कोई वातरोगों से पीड़ित

हैं। कोई फोड़े, गिल्टी, प्लेग आदि से युक्त सन्निपात रोग और प्रमेहादि रोगों से घेरे गये हैं। इस प्रकार लोग अनेक रोगों से ग्रस्त और दुःखी हैं। उन्हें देखकर मुझे बड़ा दुःख हुआ और बारम्बार मैंने चिन्ता की। मैंने सोचा कि ये लोग कैसे नीरोग होंगे और प्रसन्न होंगे ? इसी चिन्ता से मन मैं व्याकुल होकर मैं आपकी शरण में आया हूँ।
हे विश्वात्मन् शरणागत भूम्यादि लोकों की आप रक्षा कीजिये। त्रैलोक्य में आपके अतिरिक्त इनका कोई रक्षक नहीं हैं।
भगवान् श्री विष्णु नारद जी के उक्त वचनों को सुनकर गम्भीर वाणी से बोले-हे मुने आप भय न कीजिये। मैं 'आदि धनवंतरि' इन्द्र से आयुर्वेद प्राप्त कर पुनः अवतार लेकर सभी लोकों को नीरोग करुँगा। मैं कार्तिक मास, कृष्ण पक्ष, त्रयोदशी, गुरुवार, हस्त नक्षत्र के समय अवतार लेकर 'आयुर्वेद' का उद्धार करुँगा। इसमें सन्देह न करो।
द्वितीय अध्याय:
भगवान् विष्णु के उक्त वचनों को सुनकर नारद मुनि अति प्रसन्न हुए और हर्ष से बोले-हे भगवन् आप 'धनवंतरि पूजा' की विधि बताइए। 'धनवंतरि पूजा में कौन सा ध्यान या विधान किया जाए ? उसका नियम क्या हैं ? उसका फल क्या हैं ? किस समय, किसने उस पूजा को किया हैं ? पूजा में क्या क्या चीजें चाहिए ? हे देव देवेश्वर लोकों पर अनुग्रह करने की इच्छा से कृपा पूर्वक यह सब मुझे बताइए। श्री भगवान् ने कहा- हे मुने तुमने लोकोपकार की इच्छा से पूछा हैं। अतएव तुमसे 'पापनाशिनी, रोगनाशिनी कथा' कहता हूँ।
धनगुप्त राजा के निमित्त कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी गुरुवार हस्त नक्षत्र के समय मैं रात्रि के प्रथम प्रहर में गुप्त धन के समान 'धनवंतरि' नाम से अवतीर्ण होता हूँ। अतएव वह दिन संसार में 'धनत्रयोदशी' (धनतेरस) नाम से प्रसिद्ध होगा। यह तिथि सभी कामनाओं को देने वाली हैं।
नारद जी ने पूछा- हे भगवन् कृपया विस्तार पूर्वक बताइए कि बड़ बागी धनगुप्त कहाँ हुआ और आपके दर्शन की प्राप्ति के लिए उसने कौनसा व्रत किया था और हे दयासागर नारायण उसने आपका पूजन क्यों किया था?
श्री भगवान् ने कहा- पहले अवन्तीपुर (उज्जैन) में 'धनगुप्त' नामक राजा धर्ममार्ग से प्रजा का पालन करने वाला हुआ था। वह सभी लोगों का प्यारा, उदारचित्त था। उसे क्षयरोग हो गया। उससे वह दिन-रात पीड़ित होने लगा। पीड़ा की निवृत्ति के लिए उसने जप, होम, नाना प्रकार की औषधियाँ की, परन्तु नीरोग न हुआ। तब वह खिन्न होकर विलाप करने लगा।
राजा की स्त्री त्रिलोक में प्रसिद्ध, पतिव्रता, सदाचारिणी थी। उसने भी पति के मंगल की आकांक्षा से अनेक नियम, उपवास आदि किए, पर इससे भी राजा नीरोग न हुआ और अन्त में वह स्त्री भी अतीसार रोग से रोगिणी हो गई। हे मुने उस राजा से उस पतिव्रता स्त्री के पाँच पुत्र हुए। वे क्रमशः आमवात, प्लीहा, कुष्ठ, खाँसी और श्वास से पीड़ित हुए। उनको भी रोग से छुटकारा न मिला। राजा और रानी अपने पुत्रों को रोगार्त देखकर अत्यन्त दुःखी हुए।
स्त्री-पुत्रों को रोग के सागर से मुक्त कराने की इच्छा से चिन्तित राजा घोर वन को चला गया। वन में राजा ने महामुनि 'भरद्वा' को बैठे देखा। राजा ने उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और अपना दुःख बताया। महामुनि भरद्वाज से राजा ने रोग-कष्ट निवारण हेतु उपाय पूछा।
भरद्वाज मुनि ने कहा-हे राजन् तुम्हारा वृत्तान्त मैंने जान लिया। तुम अति शीघ्र महाविष्णु धनवंतरि की शरण में जाओ। मनुष्य उनके दर्शन मात्र से घोर दुस्तर रोगों से मुक्त हो जाता हैं। राजा ने भरद्वाज मुनि से उक्त बात सुनकर उनसे पूछा-हे महात्मन् आप कृपा कर उनकी आराधना विधि मुझे भली-भाँति बताइए। ऋषि भरद्वाज ने कहा-हे महाभाग राजन् उस विधि को मैं कहता हूँ, सावधान चित्त से सुनिए।
कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के शुभ दिन, प्रातः काल उठकर शौच-मुख मार्जन आदि से निवृत्त होकर स्नान करे। शुद्ध वस्त्र आदि धारण कर गुरु से प्राप्त
उपदेशानुसार भगवान् धनवंतरि का ध्यान करे। निम्न मन्त्र पढ़कर व्रत का प्रारम्भ करे :
करिष्यामि व्रतं देव त्वद् भक्तस्त्वत् परायणः। श्रियं देहि जयं देहि, आरोग्यं देहि मे प्रभो
अर्थात् हे देव मैं आपका भक्त हूँ, आप में चित्त लगाकर आपका व्रत करुँगा। आप मुझे लक्ष्मी दीजिए, विजय दीजिए, आरोग्य दीजिए।
देव धनवंतरि से उक्त प्रार्थना कर, उनकी षोडशोपचार से पूजा करे। पूजा करने के बाद तेरह धागों का सूत्र लेकर तेरह गाँठ वाला 'दोरक' बनाए। इस 'दोरक' की भक्तिपूर्वक पूजा करे और निम्न मन्त्र पढ़कर पुरुषों के दाहिने हाथ में तथा स्त्रियों के बाँएँ हाथ में बाँधे:
धन्वन्तरे महाभाग जरारोगनिवारक।
दोररुपेण मां पाहि, सकुटुम्बं दयानिधे
आधिव्याधिजरा मृत्यु भयादस्मादहर्निशम्।
पीड्यमानं देवदेव रक्ष मां शरणागतम्
अर्थात्-हे धन्वन्तरे हे महाभाग आप जरा (बुढापा) और रोग के मिटाने वाले हैं। इसलिए हे दयानिधे आप इस सूत्ररुप से सकुटुम्ब मेरी रक्षा कीजिये। मैं दिन-रात आधि (मानसिक दुःख) और व्याधि (रोग), जरा (बुढापा) तथा मृत्यु के भय से त्रस्त हो रहा हूँ। हे देव-देव  शरण में आए हुए मेरी अब आप रक्षा करें। सूत्र बन्धन के बाद 'देव देव धनवंतरि' को भक्ति पूर्वक 'अर्घ्य' निवेदन करे। अर्घ्य प्रदान करने का मन्त्र इस प्रकार हैं :

जातो लोक हितार्थाय, आयुर्वेदाभिवृद्धये।
जरा मरण नाशाय, मानवानां हिताय च
दुष्टानां निधनायाय, जात्त धन्वन्तरे प्रभो।
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं, देव देव कृपा कर
अर्थात्- हे देव देव, दया कारी धनवंतरि! आप लोकापकार के लिए, आयुर्वेद की अभिवृद्धि के निमित्त, मनुष्यों के हित तथा जरा मरण का नाश करने के लिए अवतरित हुए हैं। मैं आपको अर्घ्य प्रदान करता हूँ। इसे स्वीकार कीजिए।
अर्घ्य प्रदान करने के बाद ब्राह्मण को बायन दान करे। बायन दान के लिए गेहूँ के आटे में दूध, घी डालकर पकाए। पकने पर शक्कर डाले। केसर, कपूर, इलायची, लौंग, जावित्री डालकर इस सिद्ध नैवेद्य को भगवान् को अर्पित करे। आधा प्रसाद वेदज्ञ ब्राह्मण को अर्पित करे और आधा स्त्री पुत्रादि सहित स्वयं प्रसाद स्वरुप ग्रहण करे। हे राजन् इस विधि से व्रत करने से साक्षात् धनवंतरि स्वयं प्रकट होकर तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध करेंगे। इतनी कथा सुनाकर भरद्वाज मुनि ने विश्राम लिया।
तृतीय अध्याय:
सूत जी बोले-हे मुनि वरों राजा धनगुप्त ने मुनि की आज्ञा पाकर उनके कहे अनुसार तेरह वर्ष पर्यन्त भक्ति पूर्वक व्रत किया।
एक दिन व्रत समाप्ति के अवसर पर साक्षात् धनवंतरि प्रकट हुए। राजा ने साष्टांग प्रणाम कर उनकी स्तुति की। भक्ति पूर्वक की गई स्तुति स्वीकार कर भगवान् धनवंतरि ने कहा-हे राजन् अब तुम डरो मत, तुम्हारा मंगल होगा। तुम हमसे वर माँगो। राजा ने यह सुनकर उन्हें पुनःसाष्टांग प्रणाम किया और उनकी स्तुति की:

धन्वन्तरे नमस्तुभ्यं, नमो ब्रह्माण्ड नायक।
सुरासुराराधितांघ्रे, नमो वेदैक गोचर ।
आयुर्वेद स्वरुपाय, नमस्ते जगदात्मने
प्रपन्नं पाहि देवेश जगदानन्द दायक।
दया निधे महा देव त्राहि मामपराधिनम्।
जन्म मृत्यु जरारोगैः, पीड़ितं सकुटुम्बिनम्
अर्थात्- हे धन्वन्तरे ब्रह्माण्ड नायक आपको नमस्कार! आयुर्वेद स्वरुप जगत् के अन्तर्यामी आपको नमस्कार। हे जगत् के सुखदायी देव देव दया सागर, महा देव आप मुझ शरणागत अपराधी की रक्षा करें।
मैं कुटुम्ब सहित जन्म मृत्यु जरा आदि रोगों से पीड़ित हूँ।
भगवान् धनवंतरि ने यह स्तुति सुनकर मेघ गर्जन के समान गम्भीर वाणी से मुस्कुराते हुए कहा-हे महा राज ठीक हैं, ठीक हैं, मैं तुम्हारी स्तुति से प्रसन्न हूँ। अब हमसे वर माँग लो।
राजा बोले-हे देव यदि आप प्रसन्न हैं, तो सबसे पहले स्त्री पुत्रों सहित मुझे आरोग्य दीजिए।
यह प्रार्थना सुनकर भगवान् ने कहा-राजन् तुमने जो प्रार्थना की हैं, वह पूर्ण होगी। इसके अतिरिक्त भी मैं वर देता हूँ। उसे सावधान होकर सुनो : तुमने जिस प्रकार यह व्रत किया हैं। इसी तरह जो व्रत करेंगे, उनको आरोग्य प्रदान कर मैं उन्हें अपनी  स्थिर भक्ति दूँगा। सूत जी बोले-भगवान् धनवंतरि यह कहकर अन्तर्धान हो गए और राजा धनगुप्त अपनी पुरी में लौट गया। राजा नित्य स्त्री-पुत्रों सहित अमृत पाणि धनवंतरि की स्तुति करने लगा। उसने पृथ्वी लोक में नाना प्रकार के सुख भोगे और अन्त में भगवान् धनवंतरि की कृपा से मोक्ष पद प्राप्त किया। इस प्रकार मैंने तुम लोगों को भगवान् धनवंतरि की जन्मोत्सव कथा सुनाई। इसके सुनने से सभी पापों का नाश होता हैं।
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GURUTVA JYOTISH E-MAGAZINE NOVEMBER-2018
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